
संवाददाता
नई दिल्ली । मानसून के बाद अचानक से हो रही बारिश से ऐसा लग रहा है मानो अचानक से ठंड ने दस्तक दे दी हो। पहाड़ों पर समय से पहले ही बर्फबारी भी शुरू हो चुकी है। इस साल मानसून भी काफी लंबे समय तक रहा। बनारस हिंदू विश्वविद्यालय (बीएचयू), पुणे स्थित भारतीय उष्णकटिबंधीय मौसम विज्ञान संस्थान (आईआईटीएम) और भारतीय मौसम विज्ञान विभाग (आईएमडी ) सहित अन्य संस्थानों द्वारा किए गए एक नए अध्ययन में वैज्ञानिकों ने पाया है कि पिछले तीन दशकों में भारत के अधिकांश हिस्सों में धूप के घंटे लगातार कम होते जा रहे हैं। यह रुझान घने बादलों और बढ़ते एरोसोल प्रदूषण से जुड़ा है।
इसी महीने प्रकाशित शोध ‘नेचर्स साइंटिफिक रिपोर्ट्स’ में 1988 से 2018 के बीच नौ क्षेत्रों के 20 मौसम केंद्रों से धूप-घंटे के आंकड़ों की जांच की गई। इसमें पाया गया कि पूर्वोत्तर इलाकों को छोड़ वार्षिक धूप के घंटे सभी क्षेत्रों में घट गए हैं। बीएचयू के वैज्ञानिक मनोज के. श्रीवास्तव ने मीडिया को बताया कि पश्चिमी तट पर औसतन हर साल धूप के घंटों में 8.6 घंटे की कमी देखी गई। जबकि उत्तर भारतीय मैदानी इलाकों में सबसे ज्यादा 13.1 घंटे की गिरावट दर्ज की गई। पूर्वी तट और दक्कन के पठार में भी क्रमशः 4.9 और 3.1 घंटे प्रति वर्ष की गिरावट देखी गई। यहां तक कि मध्य अंतर्देशीय क्षेत्र में भी लगभग 4.7 घंटे प्रति वर्ष की कमी देखी गई।
अध्ययन में कहा गया है कि अक्टूबर और मई के बीच, जो कि सूखे महीने होते हैं, उनमें धूप में वृद्धि हुई। जबकि, जून से सितंबर तक, जो मानसून के साथ मेल खाता है, इसमें तेजी से गिरावट आई। अध्ययन से जुड़े वैज्ञानिकों ने दीर्घकालिक ‘सौर मंदता’ के लिए उच्च एरोसोल सांद्रता को जिम्मेदार ठहराया। इनमें औद्योगिक उत्सर्जन, बायोमास दहन और वाहनों के प्रदूषण से निकलने वाले सूक्ष्म कण शामिल हैं।
ये एरोसोल संघनन नाभिक के रूप में कार्य करते हैं, जिससे छोटे और लंबे समय तक रहने वाले बादल की बूंदें बनती हैं जो लंबे समय तक आसमान को बादलों से ढका रखती हैं। इस वर्ष के मानसून में भी भारत के अधिकांश हिस्सों में, विशेष रूप से पश्चिमी तट, मध्य भारत और दक्कन के पठार पर लगातार बादल छाए रहे। यहां बिना बारिश वाले दिनों में भी अक्सर बादल छाए रहे।



