
संवाददाता
काेलकाता। पश्चिम बंगाल की राजनीति में तृणमूल कांग्रेस और उसकी मुखिया ममता बनर्जी की हालिया चालबाजी ने उसे एक ऐसे नए मोड़ पर लाकर खड़ा कर दिया है। ममता बनर्जी लंबे समय तक खुलेआम “तुष्टिकरण की राजनीति” करती रही हैं। यहां तक कि वे हिंदू भावनाओं और भगवान श्रीराम के नाम पर उपहास का माहौल बनाती रही हैं। वही हिंदू विरोधी मुख्यमंत्री ममता बनर्जी अब अचानक “महाकाल मंदिर” निर्माण की घोषणा कर रही हैं। सवाल उठना स्वाभाविक है क्या यह वास्तविक अध्यात्म का उद्गम है या मात्र चुनावी मौसम की राजनीतिक ठिठोली मात्र है। सभी को पता है कि अगले साल पश्चिम बंगाल में विधानसभा चुनाव हैं। हाल ही में बिहार की जनता ने भाजपा और एनडीए को जितना प्रचंड समर्थन दिया है, उसने ममता बनर्जी को हिलाकर रख दिया है। यही वजह है कि वे अब हिंदू विरोध की राजनीति से कुछ समय तक पल्ला झाड़ने की रणनीति बना रही हैं। ताकि उनका हश्र भी राजद और महागठबंधन जैसा ना हो। इसकी शुरुआत उन्होंने अचानक ‘महाकाल’ के प्रति प्रेम को दर्शाकर आरंभ की है। लेकिन पश्चिम बंगाल की प्रबुद्ध जनता जानती है कि महाकाल मंदिर का कार्ड वास्तव में अध्यात्म नहीं, यह चुनाव का गणित मात्र है।
बिहार में भाजपा की महाविजय ने ममता बनर्जी को बुरी तरह डराया

राजनीतिक विश्लेषकों की मानें तो ममता बनर्जी की यह रणनीति सिर्फ और सिर्फ चुनावी मौसम के अनुरूप है। बिहार में भाजपा की महाविजय ने ममता बनर्जी को बुरी तरह डरा दिया है। दरअसल, बीते वर्षों में पश्चिम बंगाल में भाजपा के तेजी से उभार के पीछे एक बड़ा निर्णायक वर्ग हिंदू मतदाता भी रहा है। ममता सरकार का कुशासन तो इसका बड़ा मजबूत पहलू है ही। ऐसे में तृणमूल को यह समझ आने लगा है कि बंगाल की राजनीति में राम, दुर्गा और महाकाल अब सब चुनावी विमर्श का केंद्र बन चुके हैं। बंगाल में जिस हिन्दू मतदाताओं ने 2021 में TMC को कड़ी चुनौती दी थी, वही वर्ग अब 2026 के आगामी विधानसभा चुनावों में निर्णायक बन सकता है। ममता की राजनीतिक टीम को इसका पूरा एहसास है। इसलिए अचानक बड़े-बड़े धार्मिक स्थलों की घोषणाएँ, देवी-देवताओं के नाम पर सरकारी कार्यक्रम और अब यह महाकाल मंदिर का कार्ड खेलने की कोशिश कर रही हैं।
चुनाव से पहले जनता के साथ महाकाल कार्ड खेलने की कोशिश

पश्चिम बंगाल की जनता ऐन चुनाव से पहले महाकाल कार्ड खेलने की कोशिश को देख रही है और इसे सफल नहीं होने देगी। दरअसल, सालों तक ममता बनर्जी दुर्गा पूजा विसर्जन से लेकर रामनवमी जुलूस पर प्रतिबंध लगाने या इन हिंदू धार्मिक आयोजन को सीमित करने के षडयंत्र करती रही हैं। यह छवि बंगाल से बाहर तो व्यापक रूप से बनी ही है। अब बंगाल के अंदर भी हिंदू समाज का इससे बहुत आहत हुआ है। इसीलिए उनका मानना है कि महाकाल मंदिर का कार्ड सिर्फ ममता बनर्जी की “छवि सुधार अभियान” का हिस्सा मात्र है। हकीकत में वह अपनी मुस्लिम तुष्टिकरण की नीति से एक इंच भी पीछे हटने वाली नहीं है। विरोधियों का कहना है कि जब कभी भगवान श्रीराम का नाम जनता के बीच ताकत से उठा है, ममता बनर्जी का पहला रिएक्शन “भगवान को राजनीति में घसीटने” की शिकायत करना होता है। लेकिन अब विडंबना देखिए आज वही सरकार धार्मिक आस्थाओं का सहारा लेराजनीतिक संदेश दे रही है।
पश्चिम बंगाल के बदलते सियासी मौसम में तृणमूल कांग्रेस की बैचैनी
ममता बनर्जी के विरोधियों का साफ-साफ तर्क है कि यह सब एक सुनियोजित, पर बेहद हड़बड़ी में तैयार की गई रणनीति है। ताकि कम से कम प्रतीकात्मक रूप से ही सही, हिंदू वोट बैंक में अपनी साख कुछ बचाई जा सके। राजनीतिक पंडित साफ कहते हैं कि यह हड़बड़ी तृणमूल कांग्रेस को फायदा पहुंचाने वाली नहीं है। दरअसल, लोकसभा चुनावों के बाद से पश्चिम बंगाल में भी भाजपा के हिंदुत्व-मुख्य एजेंडे का प्रभाव बढ़ा है और तृणमूल अपनी जमीन खिसकती देख रही है। ममता बनर्जी द्वारा मंदिरों, आरती, पूजा और धार्मिक प्रतीकों का उपयोग तब और संदिग्ध लगता है जब उन्हें यह करते वर्षों में पहली बार देखा जा रहा है। इसलिए यह शीशे की तरह साफ है कि पश्चिम बंगाल की जनता इस दिखावटी अध्यात्म और नकली आस्था का चुनाव में पुरजोर जवाब देने वाली है।
तुष्टिकरण की राजनीति और “हिंदू विरोधी छवि” के लिए मशहूर

यह स्पष्ट है कि पश्चिम बंगाल का मतदाता—भोला नहीं, बल्कि सजग, प्रबुद्ध और आस्थावान है। बंगाल की राजनीति इन दिनों केवल सत्ता की लड़ाई नहीं, बल्कि यह प्रतीकों, आस्थाओं और भावनाओं का अखाड़ा बन चुकी है। इसी अखाड़े के बीच खड़े होकर ममता बनर्जी ने अचानक “महाकाल मंदिर” का कार्ड खेलने को मजबूर हो चुकी हैं। “तुष्टिकरण की राजनीति” और घोर “हिंदू विरोधी छवि” के बीच ममता बनर्जी ने अब सिलीगुड़ी में 17.4 एकड़ भूमि पर महाकाल मंदिर की घोषणा की है। यह ऐन चुनावी वर्ष से पहले की केवल रणनीतिक घोषणा है। जिसका उद्देश्य उनके माथे पर लगा हिंदू विरोध के दाग को धोना है। लेकिन बंगाल का हिंदू मतदाता उनके इस राजनीतिक पैंतरे को समझ गया है। दरअसल, ममता ने बरसों तक “हिंदुत्वात्मक प्रतीकों से दूरी” बनाए रखी। लेकिन अब जब भाजपा का हिंदू मतदाता आधार बंगाल की राजनीति में निर्णायक बनता जा रहा है, तभी अचानक ममता को “महाकाल” याद आने लगे हैं।
महाकाल मंदिर मजाक- बिना प्रोजेक्ट लागत के जमीन आवंटित
सवाल यह भी है कि यह हिंदू विरोधी मानसिकता वाली ममता के मन में अध्यात्म किस गति से जागृत हुआ? बंगाल कैबिनेट ने अक्टूबर 2025 में महाकाल मंदिर निर्माण के लिए भूमि को पर्यटन विभाग को स्थानांतरित करने का निर्णय लिया। 25.15 एकड़ जमीन में से 17.4 एकड़ केवल मंदिर परिसर के लिए निर्धारित कर दी गई। लेकिन सबसे बड़ा मजाक देखिए, प्रोजेक्ट लागत जो किसी भी सरकारी परियोजना की पारदर्शिता का मुख्य तत्व होती है—अब तक घोषित नहीं की गई है। इतने बड़े पैमाने पर भूमि आवंटन हो गया, सरकारी पहल की प्रेस कॉन्फ़्रेंसें हो गईं। राजनीतिक संदेश देने की खोखली कोशिश भी हो गई, पर असल परियोजना व्यय का कोई ठोस आंकड़ा सार्वजनिक मंचों पर नहीं रखा गया। क्या यह जल्दबाजी और हड़बड़ी का संकेत नहीं है?
बंगाल की जनता-जनार्दन के मन में बिहार की शानदार जीत बैठी

इस राजनीतिक जल्दबाजी के पीछे कारण भी उतने ही स्पष्ट हैं। बंगाल की जनता-जनार्दन के मन में बिहार की शानदार जीत से भाजपा की धार्मिक अपील गहरी पैठ बना चुकी है। राम मंदिर की प्राण-प्रतिष्ठा, शानदार शुरुआत और अब भगवा शिखर ध्वजारोहण ने राष्ट्रीय स्तर पर हिंदू आस्था की एक नई ऊर्जा पैदा की—जो बंगाल में भी शिद्दत से महसूस की जा रही है। यह असर तृणमूल कांग्रेस के लिए किसी चेतावनी से कम नहीं है। 2021 के विधानसभा चुनाव में भाजपा को ऐतिहासिक समर्थन मिला था, विशेषकर उन क्षेत्रों में जहाँ हिंदू मतदाता संख्या अधिक है। और 2026 की ओर बढ़ते हुए यह समर्थन और प्रभाव दोनों ही बढ़ते दिख रहे हैं। ऐसे में ममता बनर्जी का महाकाल मंदिर निर्माण कार्ड विरोधियों के लिए तो केवल एक “राजनीतिक औजार” है। ऐसा औजार जिसे मजबूरी में उठाया गया है।
ममता को 14 वर्षों में कभी महाकाल का ख्याल क्यों नहीं आया?
इस पूरे घटनाक्रम का सबसे दिलचस्प पहलू है, महाकाल मंदिर बनाने के लिए समय का चुनाव। अगर ममता बनर्जी को महाकाल में इतनी ही आस्था थी तो यह विचार पिछले 14 वर्षों में कभी क्यों नहीं आया? क्यों यह घोषणा ठीक उसी समय आई जब हिंदू मतदाता का झुकाव विपक्ष की ओर तेजी से बढ़ रहा है? क्यों वही नेता, जिन्होंने रामनवमी जुलूस, दुर्गा विसर्जन, रथ यात्रा जैसे आयोजनों पर कहाँ–कहाँ पर प्रतिबंध या प्रतिबंध–समान व्यवस्थाएँ लागू की थीं, आज मंदिर निर्माण की अगुआई कर रही हैं? क्या यह किसी अचानक हुए आध्यात्मिक परिवर्तन का परिणाम है, या फिर यह चुनावी मजबूरी की तपिश में तैयार की गई रणनीति है? बंगाल के राजनीतिक पंडितों का कहना है कि इस कदम के पीछे सत्ता खोने का डर भी है। क्योंकि जनता सजग हो चुकी है। वह जानती है कि जब आस्था वास्तविक होती है तो सरकार के निर्णय लंबे समय तक धार्मिक समुदायों के विश्वास को मजबूत करते हैं। और जब निर्णय केवल चुनावी समय में, अचानक, बिना किसी व्यापक परामर्श या स्पष्ट योजना के आते हैं, तो वे आस्था से अधिक राजनीति की गंध देते हैं।
मंदिर आस्था का स्मारक या चुनावी मौसम में खोला राजनीतिक मंच

यहां सबसे बड़ा सवाल खड़ा होता है कि क्या बंगाल की जनता इसे स्वीकार करेगी? क्या वह इस मंदिर को आस्था का स्मारक मानेगी, या इसे चुनावी मौसम में खोला गया एक राजनीतिक मंच समझेगी? बंगाल के मतदाता को भावुक अवश्य कहा जा सकता है, पर भोला नहीं। यह वह जनता है जिसने साम्प्रदायिक तनावों, राजनीतिक झगड़ों और सांस्कृतिक संघर्षों के बीच भी अपनी राजनीतिक समझ को अक्षुण्ण रखा है। वह नेता की भक्ति और सत्ता की भूख में फर्क करना जानती है। ममता बनर्जी चाहे कितना भी इसे धार्मिक पहल बताए, लेकिन भाजपा नेता साफ-साफ इसे चुनावी छलावा बता रहे हैं। उनका तर्क है कि अगर यह पहल सचमुच धार्मिक होती, तो इसकी घोषणा उतनी ही शांति और स्वाभाविकता के साथ आती जितनी अन्य विकास परियोजनाएँ आती हैं। लेकिन जिस अंदाज़ में महाकाल मंदिर को एक विशाल परियोजना के रूप में उछाला जा रहा है, वह इसे एक राजनीतिक हथियार जैसा दिखाता है।



