
नरेन्द्र भल्ला
पटना। बिहार की चुनावी-राजनीति में अगड़ी-पिछड़ी जातियों और दलितों की तो अहम भूमिका रहती ही आई है लेकिन सूबे की तकरीबन 17 फीसदी मुस्लिम आबादी को नजरअंदाज नहीं किया जा सकता। राज्य की 20 फीसदी सीटों पर मुस्लिम वोटर इस ताकत में हैं कि अगर वे एकजुट हो जायें,तो सत्ता पाने के सारे गणित को बदलकर रख दें। आजादी के बाद से कांग्रेस का साथ देने वाले इस मजबूत वोट बैंक पर सबसे पहले लालू प्रसाद यादव ने ऐसी सेंध लगाई कि इन मुस्लिमों के भरोसे ही उन्होंने सालों तक बिहार पर राज किया। लेकिन पिछले चुनाव-नतीजों पर गौर करें,तो पता चलता है कि मुस्लिम वोटर अब कई खानों में बंट चुका है।
जबकि सियासी समीकरण के लिहाज से बिहार विधानसभा की 243 सीटों में से करीब 50 सीटों पर मुस्लिम वोटर आज भी गेमचेंजर की भूमिका में माने जाते हैं। सीमांचल के चार जिलों यानि किशनगंज, कटिहार, अररिया और पूर्णिया की 24 सीटों पर मुस्लिम वोटर निर्णायक भूमिका में है। प्रदेश में 11 विधानसभा सीटें ऐसी है, जहां मुस्लिम वोटरों की संख्या 40 फीसदी या उससे अधिक है। जबकि 7 सीटों पर मुस्लिम मतदाता 30 से 40 प्रतिशत के बीच हैं। इसके अलावा 27 विधानसभा क्षेत्र ऐसे हैं, जहां मुस्लिम वोटरों की हिस्सेदारी 20 से 30 प्रतिशत के बीच मानी जाती है। लेकिन हैरानी की बात है कि मुस्लिम बहुल क्षेत्रों में भी इस समुदाय के उम्मीदवार विधानसभा की रेस में अक्सर पिछड़ जाते हैं।
इस बार भी मुस्लिम वोटरों को लुभाने के लिए सभी दल अपने हिसाब से समीकरण बैठाने में जुटे हुए हैं। हालांकि राजनीतिक प्रेक्षक सवाल उठा रहे हैं कि क्या इस बार चार खानों में बटेंगे बिहार के मुस्लिम? दरअसल,महागठबंधन में साझीदार आरजेडी को लगता है कि मुस्लिम पहले की तरह ही इस बार भी उसके साथ खड़े होंगे। जबकि कांग्रेस को उम्मीद है कि राहुल गांधी की आक्रामक प्रचार-शैली के चलते पार्टी का यह वोट बैंक फिर से उसके साथ जुड़ जायेगा।
उधर,जेडीयू को लगता है कि नीतीश सरकार की योजनाओं के लाभार्थियों में मुस्लिम समुदाय के अधिकांश गरीब भी हैं, सो वे सब जेडीयू के साथ खड़े हों मोदी सरकार की योजनाओं के भरोसे बीजेपी भी इस समुदाय के वोटरों को अपने साथ जोड़ने की कोशिशों में जुटी है। वहीं, जन सुराज पार्टी के कर्ताधर्ता प्रशांत किशोर मुस्लिम उम्मीदवारों को आबादी के अनुपात में टिकट देने की बात कह चुके हैं। अगर ऐसा हुआ,तो जाहिर है कि सबसे अधिक मुस्लिम उम्मीदवार उनकी पार्टी के होंगे।
लेकिन चौंकाने वाली बात ये है कि विपक्ष के ही वोट काटने वाली असदुद्दीन ओवैसी की पार्टी AIMIM भी इस बार फिर चुनावी अखाड़े में है। पिछले चुनाव में उनकी पार्टी के सिंबल से पांच उम्मीदवारों ने चुनाव जीत कर सबको चौंका दिया था। बिहार में ओवैसी की एंट्री को दूसरे तरीके से भी देखा जा सकता है।
ऐसे में हिसाब लगाया जा रहा है कि क्या इस बार भी बिहार के मुस्लिम वोटर चार खानों में बंट जाएंगे? सवाल ये भी है कि क्या बिहार में सियासी दलों और नेताओं ने मुस्लिमों को सिर्फ वोट बैंक की तरह इस्तेमाल किया? सब जानते हैं कि यूपी की तरह बिहार के मुसलमान भी जाति और वर्गों में बंटे हैं। कुछ स्टडी बताती हैं कि पिछले तीन विधानसभा चुनावों में मुस्लिम वोटरों की पसंद नंबर वन महागठबंधन रहा है। साल 2015 के बिहार चुनाव में आरजेडी, जेडीयू और कांग्रेस साथ-साथ लड़े, तब महागठबंधन को मुस्लिम समुदाय का करीब 80 फीसदी वोट मिला।जबकि साल 2020 के चुनाव में नीतीश कुमार फिर एनडीए के जहाज पर सवार हो गए। सीमांचल में AIMIM मैदान में डट गई। इसके बाद भी महागठबंधन के खाते में मुस्लिम समुदाय का करीब 77 फीसदी वोट गया।
आंकड़े बताते हैं कि मुस्लिम बहुल क्षेत्रों में भी मुस्लिम उम्मीदवारों के चुनाव जीतने की गारंटी नहीं है। साल 2020 के विधानसभा चुनाव में आरजेडी ने 50% से अधिक मुस्लिम आबादी विधानसभा क्षेत्रों में 4 मुस्लिम उम्मीदवार उतारे, जिसमें से सिर्फ एक ही चुनाव जीत पाया। जेडीयू ने भी 50% से अधिक मुस्लिम आबादी वाले क्षेत्रों में 4 मुस्लिमों को टिकट दिया लेकिन, एक भी विधानसभा नहीं पहुंच पाया।
(लेखक वरिष्ठ पत्रकार हैं)



